जै बोलो महाराज की
-अनुराग मुस्कान
बोल परमपूज्यपाद प्रातःस्मर्णीय श्री बोलवचनानंद महाराज की जय। जयघोष के सम्वेत स्वरों की चीत्कार ने मुझे नींद से जगा दिया। हड़बड़ाकर उठा तो देखा पीतांबर वस्त्रों में लिपटे और माथे पर चंदन का लेप लगाए महाराज आलीशान एयरकंडीशन कार से उतर कर अपने चेलों के साथ मंच की ओर प्रस्थान कर रहे हैं। भक्तजन महाराज के दर्शन मात्र पाकर कृतज्ञता से हाथ जोड़े नब्बे के कोण पर झुके जा रहे हैं। पत्नी ने जोरदार कोहनी मार कर मुझे भी वैसे ही झुकने का इशारा किया। मैं झुक गया। आधा तो वैसे भी पत्नी के समक्ष झुका ही रहता हूं, बचा आधा महाराज के सामने झुका तो मेरी मुद्रा साष्टांग सम हो गई। अब मैं पूरी तरह धर्म और आध्यात्म ही शरण में लेट चुका था। लेटा तो फिर आंख लगने लगी, तभी पत्नी ने ऐड़ी मारकर उठने का इशारा किया। मैं उठ बैठा। दरअसल मुझे ऐसे सत्संग और संत समागम वाले आयोजनों में जाने का कोई पूर्वाभ्यास नहीं है। वह तो मेरी पत्नी मुझे जबरन ही यहां घसीट लाई है। पत्नी को काफी दिनों से ऐसे किसी आयोजन में जाने की तीष्ण एवं तीव्र उत्कंठा थी। किटी पार्टी में आने वाली महिलाएं जब ऐसे आयोजनों में जाने के अपना अनुभव सुनाती थीं तो बेचारी मेरी पत्नी खुद को बहुत पिछड़ा हुआ महसूस करती थी। किन्तु बोलवचनानंद महाराज ने उसकी यह पीड़ा हर ली है। आज हम लोग भी झांड़-फानूसों से सुसज्जित एक भव्य एसी पंड़ाल में विराजमान हैं।
और लीजिए श्री बोलवचनानंद महाराज जी मंच पर आसीन हो चुके हैं। सर्वप्रथम उनके चरण कमलों को धोया जा रहा है। एक विशाल परात में महाराज पैर डाले बेठे हैं और चेले-चपाटे उनके पैर धो रहे हैं। महाराज के चरण कमलों को धो चुका जल तद्पश्चात चरणामृत में मिश्रित कर प्रसाद के साथ वितरित किया जाएगा। देर से प्रतीक्षारत भक्तजनों को महारज की मीठी वाणी का सुफल प्राप्त होने ही वाला है। महाराज प्रवचन आरंभ करने से पूर्व ध्यान में लीन हैं। संगीत में अर्ध पारंगत महाराज के चेले अपने काम चलाऊ ज्ञान के साथ तबला, हारमोनीयम, ढोलक और मजीरे थामे बिलकुल तैयार बैठे हैं। दो सुघड़ नवयौवनाएं मोर पंख से निर्मित पंखों को झल कर महाराज की आत्मा और उसमें निहित परमात्मा का ताप शांत कर रही हैं। 'आनंद की जय हो, उमंग की जय हो' के अमृत वचनों के साथ महाराज ध्यान से वापस लौटते हैं। आंखें खोलते ही सर्वप्रथम वह अग्रिम पंक्ति में सजे-धजे विशिष्ट और अतिविशिष्ट अतिथियों का प्रणाम स्वीकार कर रहे हैं। भक्तों में ही भगवान का वास है, ऐसा महाराज कई बार कहते हैं। इस समय भी महाराज पूंजीपति सज्जनों में देव और उनकी अर्धांगिनियों में देवी का नयनाभिराम दर्शन पा रहे हैं। चेलों ने मद्धम-मद्धम संगीत छेड़ दिया है। महाराज ने एक भक्ति रचना गाकर आयोजन का आरंभ किया। भक्तगण झूम उठे हैं। प्रवचन आरंभ होता है। महाराज भक्तों को जीवन-मरण और पाप-पुण्य का भेद बता रहे हैं। महाराज कह रहे हैं कि, 'हमें अपने कष्टों से घबराकर दूर नहीं भागना चाहिए, कष्टों के बीच रहकर उनका मुकाबला करना ही जीवन है।', यह ज्ञान महाराज ने स्वंय अपने गृहस्थ जीवन को त्याग कर, अपने परिवार से दूर हिमालय की पहाड़ियों के एकांत में ध्यान लगाकर प्राप्त किया है। महाराज कह रहे है कि, 'पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की।', बोल परमपूज्यपाद प्रातःस्मर्णीय श्री बोलवचनानंद महाराज की जय। जोरदार जयकारा लगा है। भक्तों को महाराज की बात जंच गई। किन्तु मेरे जैसे घोर अज्ञानी के लिए यह गूढ़ रहस्य समझना डॉन को पकड़ने की तरह मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन भी है। मैंने तो अपने बुजुर्गों से सुना है कि स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है? यही बात जब मैंने अपनी पत्नी के कान में फुसफुसाकर बताई तो वह कुपित हो उठी, ऐसा लगा जैसे मुझे अभी श्राप देकर भस्म कर देगी। मेरी बुराई वह किसी से भी सुन सकती है, लेकिन श्री बोलवचनानंद महाराज के विरुद्ध कदापि किसी से कुछ नहीं सुन सकती। उस पर यह महाराज की ख्याति के प्रताप का प्रभाव है। उस पर ही क्या, मुझे छोड़कर यहां बैठे प्रत्येक व्यक्ति पर है।
महाराज का प्रवचन समाप्त हुआ। 'भगवान ने तुम्हे सब कुछ दिया किन्तु तुमने भगवान को क्या दिया?', कह कर महाराज दान-पात्र की ओर देख रहे हैं। भक्तगण महाराजाधिराज का संकेत भांप चुके हैं। दान-पात्र में धन वर्षा प्रारंभ हो चुकी है। महाराज स्पष्ट करते हैं कि, 'पिछली बार की तरह कोई भक्त कार की चाबी दानपात्र में न डाले। जिसे दान में कार देनी हो वह महाराज की समिति संयोजक महोदय से संपर्क करे और यदि कुछ भक्तों को गुप्तदान के अंतर्गत कार वगैराह देनी हैं तो वह कार न देकर धन का ही दान दें, गुप्तदान में कारें स्वीकार नहीं की जाएगीं।', महाराज गतवाक्य से आगे कहते हैं, 'अगले माह की चार तारीख को हम चार धाम यात्रा के लिए प्रस्थान कर रहे हैं, आप सुधि भक्तगण भी इस यात्रा में हमारे साथ चलकर पुण्यलाभ अर्जित करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं। जिन्हे हमारे वाहन में, हमारे परम सानिध्य में यात्रा करने की इच्छा हो वह अमुक काउंटर पर एक लाख एक रुपए जोड़ा के हिसाब से भुगतान करके यात्रा का टिकट प्राप्त करें और सामान्य यात्रा के लिए यह राशि मात्र इक्यावन हजार रुपए होगी। यात्रा से संबंधित प्रत्येक जानकारी टिकट के साथ उपलब्ध होगी। इच्छुक भक्त हजार और पांच सौ रुपए देकर अपनी सीट आरक्षित एवं सुरक्षित करा सकते हैं।', महाराज के श्रीमुख से इतना सुनते ही भक्तगण यात्रा बुकिंग काउंटर की ओर टूट पड़े। वहां जाकर यात्रा की नियम एंव शर्तें ज्ञात हुईं, यात्रा में बच्चों और बुजुर्गों को ले जाने की सख्त मनाही थी। बच्चों और बुजुर्गों की अनिश्चित स्वास्थ्य संबंधी स्थितियां और यात्रा की थकावट के प्रतिकूल प्रभाव को झेल पाने की उनकी क्षीण क्षमता यात्रा में कहीं भी और कभी भी व्यवधान पैदा कर सकती है। सो बच्चे और बुजुर्ग महाराज की फोटो ले जाकर घर में उनका ध्यान लगाएं, पुण्यलाभ होगा। महाराज की फोटो प्रत्येक साइज़ में यात्रा बुकिंग काउंटर के बराबर वाले काउंटर पर बिक्री के लिए उपलब्ध है। अब पंडाल में प्रसाद एवं चरणामृत ग्रहण कर लेने की उदघोषणा हो रही है। छोटे-छोटे कुछ बच्चों को प्रसाद वितरण खिड़की से धुड़काकर खदेड़ा जा रहा है, यह वही बच्चे हैं जिन्हे पांच-पांच रुपए देकर इस आयोजन के लिए क्रिकेट का यह मैदान साफ कराया गया था।
पंडाल में रेलमपेल मची है। कोई प्रासद एवं चरणामृत काउंटर की ओर भाग रहा है, कोई यात्रा बुकिंग काउंटर की ओर और कोई फोटो बिक्री काउंटर की ओर। महाराज बोलवचनानंद इस समय कुछ विशेष एवं विशिष्ट दानदाताओं और उनके परिजनों को स्नेहाशीष प्रदान कर रहे हैं। मंच पर केवल वही चढ़ सकता है जिसके पास एक लाख रुपए प्रति माह महादान की पावती है। शेष दूर से ही महाराज के दर्शन पाकर धन्य हो रहे हैं। तभी अचानक एक और उदघोषणा होती है। यह रविवार को प्रवचन के समापन पर होने वाले महाभोज से संबंधित उदघोषणा है। इसमें सभी से तन, मन एवं धन से भरपूर सहयोग करने की अपील दोहराई जा रही है। उदघोषक धन पर ज्यादा ही जोर दे रहा है। साथ ही यह भी बताता जा रहा है कि 'चमाचम ज्वेलर्स' वाले सेठजी के सौजन्य से महाभोज में बनने वाली खीर के लिए एक क्विटंल चीनी प्राप्त हुई है, चावल एवं दूध के लिए दान देने के इच्छित भक्त शीघ्र संपर्क करें। धनिया, मटर, टमाटर, गरम मसाला, और तेल से लेकर आटा और पेयजल तक दानदाताओं के नाम पुकारे जा रहे हैं। ब्रेड, शीतलपेय, पान मसाला एवं गुटखा के मालिकों के अलावा बड़े-बड़े उद्दोगपति, कौन नहीं है इस कतार में। महाराज की धोती से लेकर पूजा में प्रयुक्त होने वाली अगरबत्ती तक स्पान्सर्ड हो चुकी है। महाभोज का 'महात्व' स्पष्ट और व्यापक होता जा रहा है।
अब महाराज उठ खड़े हुए हैं। वह अब प्रस्थान करेंगे। अपने भक्तगणों के बाच से होते हुए महाराज अपनी आलीशान एयरकंडीशन कार की ओर तेज चाल से बढ़ रहे हैं। भक्तगणों में उनके चरणस्पर्श करने को लेकर मची होड़ मारामारी तक पहुंच चुकी है। कुछ भक्त जमीन पर पड़ चुके महाराज के चरण वाले स्थान से धूल उठाकर अपने साथ लाई पॉलिथिन की थैलियों में भरने के लिए लपक रहे हैं। यह मामूली धूल नहीं, महाराज श्री बोलवचनानंद की चरणरज है। पत्नी एक बार फिर मुझसे नाराज है, मैं उसके कहने के बावजूद घर से पॉलिथिन की थैली लाना जो भूल गया। बोल परमपूज्यपाद प्रातःस्मर्णीय श्री बोलवचनानंद महाराज की जय के जयकारे के साथ आज का प्रवचन संपन्न होता है।
('सरिता' अक्टूबर 2007 द्वितीय में प्रकाशित)
Wednesday, October 10, 2007
Monday, April 16, 2007
अक्सर भगोड़े क्यों होते हैं सन्यासी...?
पहले सन्यासी होने की परिभाषा को समझें...
भगवा वस्त्र धारण किए माथे पर चंदन का लेप लगाए कमंडल और चिमटा थामे, मुख से प्रभु नाम की महिमा का गान करता और प्रवचन अथवा कथा बांचता हर कोई साधु या सन्यासी हो, यह आवश्यक नहीं है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। अर्थात दूसरों को उपदेश देना सबसे आसान काम है। जिन सूत्रों का अनुपालन कभी खुद न किया हो या जिन बातों को खुद ठीक से न समझे हों उन्हे दूसरों को समझाना स्वयं को ही ठगने जैसा है। एक पहुंचे हुए सन्यासी बाबा प्रवचन कर रहे थे। उनके हजारों भक्त पंडाल में एकाग्र चित्त होकर उन्हे सुन रहे थे। बाबा कह रहे थे कि इंसान की प्रवृति चंदन के वृक्ष जैसी होनी चाहिए, कितने भी सर्प चंदन के वृक्ष से क्यों न लिपट जाएं किन्तु चंदन अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। ऐसे ही लोगों को धर्म और सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे मार्ग में कितने ही सर्पाकार अवरोध क्यों न आ जाएं। प्रवचन सुनकर लोग अभिभूत हुए जा रहे थे। बाबा लोगों को मोह-माया से दूर हो जाने की सलाह और उपाय भी सुझा रहे थे। बाबा ने यह भी बताया कि सन्यासी होकर कैसे उन्होने सत्य, धर्म और ईश्वर की खोज की है। आध्यात्म का अनुयायी होने की लालसा में बाबा ने वर्षों पहले अपना घर-परिवार छोड़ दिया था। तद्पश्चात पहाड़ों पर जाकर बाबा ने कठोर साधना की। तब कहीं जाकर वह जीवन-मरण और स्वर्ग-नरक के भेद को जान पाए।
अब यदि क्रम से बाबाजी की बातों का विशलेषण किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि सर्पों से लिपटे होने पर भी चंदन बने रहने का पाठ पढ़ाने वाले, चंदन बनने के लिए खुद सांसारिक मोह-माया के सर्पों से क्यों भाग जाते हैं? घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से भाग कर पहाड़ों की शरण में तपस्या कर लेना ही क्या सन्यासी हो जाना है? भगोड़ा होकर साधु होना धर्मसंगत कैसे हो सकता है। सच्चा साधु, सच्चा सन्यासी तो वह है जो सांसारिक आपाधापियों के साथ भी अपने हृदय की निर्मलता और अपने सदविचारों की सुदृंढता बनाए रखता है। अपने घर के दरवाजे, खिड़कियां और रौशनदान बंद करके कोई कहे कि वह समाज के झंझावातों से दूर रहता है, वह संसार के पचड़ों से वास्ता नहीं रखता और इसलिए वह एक सभ्य नागरिक होने के साथ स्वच्छ छवि का एकाधिकारी भी है, तो यह उसके मन का भ्रम है। फिर भले ही वह स्वयं को सन्यासी प्रचारित क्यों न करे। सांसारिक भीड़ के मध्य रहकर अपनी काम-वासना, मोह-माया, मन-मस्तिष्क की विसंगतियों एवं चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण रखना ही व्यक्ति विशेष को साधु अथवा सन्यासी बनाता है। उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों से भागना अनुचित है। धर्म के अतिरिक्त देश, समाज और परिवार के प्रति भी व्यक्ति का दायित्व होता है।
अक्सर कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की। यह कहकर सत्य के मार्ग पर चलने का भ्रम पालने वाले दरअसल असत्य के गर्भ में होते हैं। स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि साधु-सन्यासी को पहचाने कैसे? बद्रीनाथ धाम में मैंने अजब दृश्य देखा। दो साधु एक कुत्ते को डंड़े और तालों से मार रहे थे। कारण पूछा तो पता चला वह कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा था। नित्य धार्मिक अनुष्ठान करने वाले, प्रभु की जय-जयकार करने वाले और जीवन में आए सुख-दुख को, 'होय वही जो राम रच राखा' कहकर संबल देने वाले साधु अगले ही पल अपनी रोटी छिन जाने से व्यथित हो उठे थे। इतने, कि हिंसक हो गए। स्वयं पर विपदा आई तो हर वस्तु और प्राणी में भगवान को देखने का प्रवचन देने वाले साधुओं को कुत्ते में भगवान नहीं दिखे। इस आचरण से एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि कोई व्यक्ति सर्वप्रथम मन से अर्थात हृदय से साधु-सन्यासी होता है, उसके बाद कर्म से साधु-सन्यासी होता है और, सबसे अंत में वचन से साधु-सन्यासी होता है, किन्तु केवल वेशभूषा से वह कदापि साधु-सन्यासी नहीं हो सकता।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
भगवा वस्त्र धारण किए माथे पर चंदन का लेप लगाए कमंडल और चिमटा थामे, मुख से प्रभु नाम की महिमा का गान करता और प्रवचन अथवा कथा बांचता हर कोई साधु या सन्यासी हो, यह आवश्यक नहीं है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। अर्थात दूसरों को उपदेश देना सबसे आसान काम है। जिन सूत्रों का अनुपालन कभी खुद न किया हो या जिन बातों को खुद ठीक से न समझे हों उन्हे दूसरों को समझाना स्वयं को ही ठगने जैसा है। एक पहुंचे हुए सन्यासी बाबा प्रवचन कर रहे थे। उनके हजारों भक्त पंडाल में एकाग्र चित्त होकर उन्हे सुन रहे थे। बाबा कह रहे थे कि इंसान की प्रवृति चंदन के वृक्ष जैसी होनी चाहिए, कितने भी सर्प चंदन के वृक्ष से क्यों न लिपट जाएं किन्तु चंदन अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। ऐसे ही लोगों को धर्म और सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे मार्ग में कितने ही सर्पाकार अवरोध क्यों न आ जाएं। प्रवचन सुनकर लोग अभिभूत हुए जा रहे थे। बाबा लोगों को मोह-माया से दूर हो जाने की सलाह और उपाय भी सुझा रहे थे। बाबा ने यह भी बताया कि सन्यासी होकर कैसे उन्होने सत्य, धर्म और ईश्वर की खोज की है। आध्यात्म का अनुयायी होने की लालसा में बाबा ने वर्षों पहले अपना घर-परिवार छोड़ दिया था। तद्पश्चात पहाड़ों पर जाकर बाबा ने कठोर साधना की। तब कहीं जाकर वह जीवन-मरण और स्वर्ग-नरक के भेद को जान पाए।
अब यदि क्रम से बाबाजी की बातों का विशलेषण किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि सर्पों से लिपटे होने पर भी चंदन बने रहने का पाठ पढ़ाने वाले, चंदन बनने के लिए खुद सांसारिक मोह-माया के सर्पों से क्यों भाग जाते हैं? घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से भाग कर पहाड़ों की शरण में तपस्या कर लेना ही क्या सन्यासी हो जाना है? भगोड़ा होकर साधु होना धर्मसंगत कैसे हो सकता है। सच्चा साधु, सच्चा सन्यासी तो वह है जो सांसारिक आपाधापियों के साथ भी अपने हृदय की निर्मलता और अपने सदविचारों की सुदृंढता बनाए रखता है। अपने घर के दरवाजे, खिड़कियां और रौशनदान बंद करके कोई कहे कि वह समाज के झंझावातों से दूर रहता है, वह संसार के पचड़ों से वास्ता नहीं रखता और इसलिए वह एक सभ्य नागरिक होने के साथ स्वच्छ छवि का एकाधिकारी भी है, तो यह उसके मन का भ्रम है। फिर भले ही वह स्वयं को सन्यासी प्रचारित क्यों न करे। सांसारिक भीड़ के मध्य रहकर अपनी काम-वासना, मोह-माया, मन-मस्तिष्क की विसंगतियों एवं चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण रखना ही व्यक्ति विशेष को साधु अथवा सन्यासी बनाता है। उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों से भागना अनुचित है। धर्म के अतिरिक्त देश, समाज और परिवार के प्रति भी व्यक्ति का दायित्व होता है।
अक्सर कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की। यह कहकर सत्य के मार्ग पर चलने का भ्रम पालने वाले दरअसल असत्य के गर्भ में होते हैं। स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि साधु-सन्यासी को पहचाने कैसे? बद्रीनाथ धाम में मैंने अजब दृश्य देखा। दो साधु एक कुत्ते को डंड़े और तालों से मार रहे थे। कारण पूछा तो पता चला वह कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा था। नित्य धार्मिक अनुष्ठान करने वाले, प्रभु की जय-जयकार करने वाले और जीवन में आए सुख-दुख को, 'होय वही जो राम रच राखा' कहकर संबल देने वाले साधु अगले ही पल अपनी रोटी छिन जाने से व्यथित हो उठे थे। इतने, कि हिंसक हो गए। स्वयं पर विपदा आई तो हर वस्तु और प्राणी में भगवान को देखने का प्रवचन देने वाले साधुओं को कुत्ते में भगवान नहीं दिखे। इस आचरण से एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि कोई व्यक्ति सर्वप्रथम मन से अर्थात हृदय से साधु-सन्यासी होता है, उसके बाद कर्म से साधु-सन्यासी होता है और, सबसे अंत में वचन से साधु-सन्यासी होता है, किन्तु केवल वेशभूषा से वह कदापि साधु-सन्यासी नहीं हो सकता।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
Sunday, April 8, 2007
तो क्या सत्संग 'स्टेटस सिंबल' है...?
सच्चा सत्संग अपने अंदर ही होता है
-अनुराग मुस्कान
किसी से पूछा कि सत्संग क्या है, तो उत्तर मिला कि प्रत्येक सोमवार को इकत्तीस नंबर कोठी वाले शर्माजी के घर जो उनके गांव से पधारे बाबाजी करते हैं वह सत्संग है। किसी ने कहा हर इतवार को मंदिर में जो प्रवचन होता है, वही सत्संग है। कोई बोला कि तमाम धार्मिक चैनलों पर जो दिखाया जाता है, वह सत्संग है। दरअसल सत्संग की परिभाषा को लेकर लोगों में भ्रम हो गया है। लोगों के लिए सत्संग का अर्थ किसी पंडाल में विराजे और टीवी पर दिख रहे बाबाजी के बोल-वचन से ज्यादा कुछ नहीं है। संत समागम को ही लोग सत्संग समझने लगे हैं। सत्य का संग सत्संग कहलाता है। माना गया है कि सच्चा संत सत्य के मार्ग पर चलकर ईश्वर के सर्वाधिक समीप होता है, इसलिए उसकी वाणी ईश्वर की वाणी होती है। तात्पर्य यह कि संतों की वाणी के श्रवण को सत्संग कहना गलत नहीं है, किन्तु केवल संतों की वाणी का श्रवण भी सत्संग नहीं है।
सत्संग की परिभाषा विस्तृत है। वृहद है। असीम है। सत्य के संग से विमुख होकर सत्संग की कल्पना भी आडंबर है। ढोंग है। इंसान के जीवन में प्रत्येक पड़ाव पर उसके भीतर के सत्य की परीक्षा होती है। इस परीक्षा के प्रारूप विभिन्न होते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले पाप और पुण्य का भेद भली-भांति जानते हैं। किसी को चोट न पहुंचाना, किसी का दिल न दुखाना, किसी से अपशब्द न कहना, किसी के साथ छल न करना, किसी की आह न लेना, किसी की भावनाएं आहत न करना. किसी का उपहास न करना, किसी का शोषण न करना सत्य की परीक्षा के प्रश्नपत्र हैं। जिन्हे सभी को हल करना होता है। इन प्रश्नपत्रों में उतीर्ण होना ही सत्संग है।
मेरे एक मित्र नियमित रूप से सत्संग सुनने जाते हैं। फिर सत्संग में सुने प्रवचनों को दफ्तर में दोहराते हैं। एक दिन उनके घर गया। वह तो नहीं मिले, उनकी श्रीमतीजी से भेंट हुई। पता चला किसी बड़े सत्संग आयोजन में श्रमदान देने गए हुए हैं। श्रीमतीजी परेशान थीं। पतिदेव दिन भर प्रवचन देने वाले गुरू की महिमा का बखान करते रहते हैं। सत्संग के फेर में गृहस्थी से कोई लोना-देना ही नहीं रहा। कहते हैं हम सत्संग करने वाले तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं। मरणोपरांत हम चौथे लोक में जाएंगे। स्वर्ग-नरक, यह सब अधर्मियों के गंतव्य हैं। श्रीमतीजी के प्रश्न भी स्वाभाविक हैं, कि पतिदेव तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं, अब राशन की कतार में कौन लगे, बिजली-पानी का बिल कौन जमा कराए। सत्संग सुनने वाले पति के पास घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों की समस्याएं सुनने का समय नहीं रहा। आत्मा और परमात्मा एवं भक्त और भगवान के मध्य स्थापित आस्था के झीने आवरणों ने आंखों पर पट्टी बांध दी है। सत्संगी हो जाने वैराग ने दफ्तर और घर दोंनो के प्रति कर्तव्यभाव से विमुख कर दिया है। यह कदापि सत्संग नहीं हो सकता। ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला रहती है, नित सत्संग करती है। मगर घर में उत्पात मचाते चूहों के लिए उनके पास एक ही इलाज है- चूहेमार दवा। लगभग रोज एक चूहा मार कर सामने सड़क पर फेंकती हैं। हां, गणेशजी की कोई मूर्ति बिना मूशक और मोदक के नहीं खरीदतीं। मैंने कई महिलाओं को सज-संवर कर सत्संग में जाते देखा है, जो सत्संग सुनने के बजाय वहां भी भालाई-बुराई की चौपाल लगाती हैं और घर में वृद्ध एवं बीमार सास-ससुर पीड़ा से कराहते रहते हैं। जो सत्य की ऊंगली छोड़ कर अपने कर्म से पथभ्रष्ट हो गया वह धर्म का अनुसरण फिर नहीं कर सकता। वह अपनी आत्मा और परमात्मा दोंनो को छल रहा है।
अपने कर्मों और कर्तव्यों से भागकर सत्संग संभव नहीं है। अपने दायित्वों से मुंह मोड़कर सत्संग औचित्यहीन है। अपने कर्मों के प्रति पूर्णतः निष्ठा और पाबंदी ही सबसे सच्चा सत्संग है। फिर चाहे अपने दायित्वों के निर्वाह में समयाभाव के कारण प्रभु वंदना भी संभव न हो सके। माता-पिता के साथ अभद्रता करके मंदिर में जाना व्यर्थ है। कड़वे वचन बोलकर शंख बजाना व्यर्थ है। व्यक्ति का प्रथम सत्संग स्वयं से ही होता है। ईश्वर मंदिरों से पहले व्यक्ति के शरीर में विराजते हैं। अदृश्य रूप से। सूक्ष्म रूप से। उन्हे पहचानने के लिए अपनी चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण की इच्छाशक्ति के अलावा मानवता में असीम आस्था चाहिए। जो अपनी विसंगतियों से शास्त्रार्थ करके उन पर विजय पा लेता है। उसे बाहर जाकर सत्संग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह अपने अंदर के सत्संग से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाता है। हां, जिसके लिए सत्संग करना और सुनना मात्र दिखावे के लिए है अर्थात 'स्टेट्स सिंबल' है, उसके लिए उपरोक्त बातें निर्रथक हैं। वह इन्हें पढ़कर अब तक अपना मूल्यवान समय नष्ट कर रहा था।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
-अनुराग मुस्कान
किसी से पूछा कि सत्संग क्या है, तो उत्तर मिला कि प्रत्येक सोमवार को इकत्तीस नंबर कोठी वाले शर्माजी के घर जो उनके गांव से पधारे बाबाजी करते हैं वह सत्संग है। किसी ने कहा हर इतवार को मंदिर में जो प्रवचन होता है, वही सत्संग है। कोई बोला कि तमाम धार्मिक चैनलों पर जो दिखाया जाता है, वह सत्संग है। दरअसल सत्संग की परिभाषा को लेकर लोगों में भ्रम हो गया है। लोगों के लिए सत्संग का अर्थ किसी पंडाल में विराजे और टीवी पर दिख रहे बाबाजी के बोल-वचन से ज्यादा कुछ नहीं है। संत समागम को ही लोग सत्संग समझने लगे हैं। सत्य का संग सत्संग कहलाता है। माना गया है कि सच्चा संत सत्य के मार्ग पर चलकर ईश्वर के सर्वाधिक समीप होता है, इसलिए उसकी वाणी ईश्वर की वाणी होती है। तात्पर्य यह कि संतों की वाणी के श्रवण को सत्संग कहना गलत नहीं है, किन्तु केवल संतों की वाणी का श्रवण भी सत्संग नहीं है।
सत्संग की परिभाषा विस्तृत है। वृहद है। असीम है। सत्य के संग से विमुख होकर सत्संग की कल्पना भी आडंबर है। ढोंग है। इंसान के जीवन में प्रत्येक पड़ाव पर उसके भीतर के सत्य की परीक्षा होती है। इस परीक्षा के प्रारूप विभिन्न होते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले पाप और पुण्य का भेद भली-भांति जानते हैं। किसी को चोट न पहुंचाना, किसी का दिल न दुखाना, किसी से अपशब्द न कहना, किसी के साथ छल न करना, किसी की आह न लेना, किसी की भावनाएं आहत न करना. किसी का उपहास न करना, किसी का शोषण न करना सत्य की परीक्षा के प्रश्नपत्र हैं। जिन्हे सभी को हल करना होता है। इन प्रश्नपत्रों में उतीर्ण होना ही सत्संग है।
मेरे एक मित्र नियमित रूप से सत्संग सुनने जाते हैं। फिर सत्संग में सुने प्रवचनों को दफ्तर में दोहराते हैं। एक दिन उनके घर गया। वह तो नहीं मिले, उनकी श्रीमतीजी से भेंट हुई। पता चला किसी बड़े सत्संग आयोजन में श्रमदान देने गए हुए हैं। श्रीमतीजी परेशान थीं। पतिदेव दिन भर प्रवचन देने वाले गुरू की महिमा का बखान करते रहते हैं। सत्संग के फेर में गृहस्थी से कोई लोना-देना ही नहीं रहा। कहते हैं हम सत्संग करने वाले तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं। मरणोपरांत हम चौथे लोक में जाएंगे। स्वर्ग-नरक, यह सब अधर्मियों के गंतव्य हैं। श्रीमतीजी के प्रश्न भी स्वाभाविक हैं, कि पतिदेव तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं, अब राशन की कतार में कौन लगे, बिजली-पानी का बिल कौन जमा कराए। सत्संग सुनने वाले पति के पास घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों की समस्याएं सुनने का समय नहीं रहा। आत्मा और परमात्मा एवं भक्त और भगवान के मध्य स्थापित आस्था के झीने आवरणों ने आंखों पर पट्टी बांध दी है। सत्संगी हो जाने वैराग ने दफ्तर और घर दोंनो के प्रति कर्तव्यभाव से विमुख कर दिया है। यह कदापि सत्संग नहीं हो सकता। ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला रहती है, नित सत्संग करती है। मगर घर में उत्पात मचाते चूहों के लिए उनके पास एक ही इलाज है- चूहेमार दवा। लगभग रोज एक चूहा मार कर सामने सड़क पर फेंकती हैं। हां, गणेशजी की कोई मूर्ति बिना मूशक और मोदक के नहीं खरीदतीं। मैंने कई महिलाओं को सज-संवर कर सत्संग में जाते देखा है, जो सत्संग सुनने के बजाय वहां भी भालाई-बुराई की चौपाल लगाती हैं और घर में वृद्ध एवं बीमार सास-ससुर पीड़ा से कराहते रहते हैं। जो सत्य की ऊंगली छोड़ कर अपने कर्म से पथभ्रष्ट हो गया वह धर्म का अनुसरण फिर नहीं कर सकता। वह अपनी आत्मा और परमात्मा दोंनो को छल रहा है।
अपने कर्मों और कर्तव्यों से भागकर सत्संग संभव नहीं है। अपने दायित्वों से मुंह मोड़कर सत्संग औचित्यहीन है। अपने कर्मों के प्रति पूर्णतः निष्ठा और पाबंदी ही सबसे सच्चा सत्संग है। फिर चाहे अपने दायित्वों के निर्वाह में समयाभाव के कारण प्रभु वंदना भी संभव न हो सके। माता-पिता के साथ अभद्रता करके मंदिर में जाना व्यर्थ है। कड़वे वचन बोलकर शंख बजाना व्यर्थ है। व्यक्ति का प्रथम सत्संग स्वयं से ही होता है। ईश्वर मंदिरों से पहले व्यक्ति के शरीर में विराजते हैं। अदृश्य रूप से। सूक्ष्म रूप से। उन्हे पहचानने के लिए अपनी चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण की इच्छाशक्ति के अलावा मानवता में असीम आस्था चाहिए। जो अपनी विसंगतियों से शास्त्रार्थ करके उन पर विजय पा लेता है। उसे बाहर जाकर सत्संग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह अपने अंदर के सत्संग से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाता है। हां, जिसके लिए सत्संग करना और सुनना मात्र दिखावे के लिए है अर्थात 'स्टेट्स सिंबल' है, उसके लिए उपरोक्त बातें निर्रथक हैं। वह इन्हें पढ़कर अब तक अपना मूल्यवान समय नष्ट कर रहा था।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
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