Monday, April 16, 2007

अक्सर भगोड़े क्यों होते हैं सन्यासी...?

पहले सन्यासी होने की परिभाषा को समझें...
भगवा वस्त्र धारण किए माथे पर चंदन का लेप लगाए कमंडल और चिमटा थामे, मुख से प्रभु नाम की महिमा का गान करता और प्रवचन अथवा कथा बांचता हर कोई साधु या सन्यासी हो, यह आवश्यक नहीं है। पर उपदेश कुशल बहुतेरे। अर्थात दूसरों को उपदेश देना सबसे आसान काम है। जिन सूत्रों का अनुपालन कभी खुद न किया हो या जिन बातों को खुद ठीक से न समझे हों उन्हे दूसरों को समझाना स्वयं को ही ठगने जैसा है। एक पहुंचे हुए सन्यासी बाबा प्रवचन कर रहे थे। उनके हजारों भक्त पंडाल में एकाग्र चित्त होकर उन्हे सुन रहे थे। बाबा कह रहे थे कि इंसान की प्रवृति चंदन के वृक्ष जैसी होनी चाहिए, कितने भी सर्प चंदन के वृक्ष से क्यों न लिपट जाएं किन्तु चंदन अपनी सुगंध नहीं छोड़ता। ऐसे ही लोगों को धर्म और सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना चाहिए, चाहे मार्ग में कितने ही सर्पाकार अवरोध क्यों न आ जाएं। प्रवचन सुनकर लोग अभिभूत हुए जा रहे थे। बाबा लोगों को मोह-माया से दूर हो जाने की सलाह और उपाय भी सुझा रहे थे। बाबा ने यह भी बताया कि सन्यासी होकर कैसे उन्होने सत्य, धर्म और ईश्वर की खोज की है। आध्यात्म का अनुयायी होने की लालसा में बाबा ने वर्षों पहले अपना घर-परिवार छोड़ दिया था। तद्पश्चात पहाड़ों पर जाकर बाबा ने कठोर साधना की। तब कहीं जाकर वह जीवन-मरण और स्वर्ग-नरक के भेद को जान पाए।
अब यदि क्रम से बाबाजी की बातों का विशलेषण किया जाए तो प्रश्न यह उठता है कि सर्पों से लिपटे होने पर भी चंदन बने रहने का पाठ पढ़ाने वाले, चंदन बनने के लिए खुद सांसारिक मोह-माया के सर्पों से क्यों भाग जाते हैं? घर-गृहस्थी के कर्तव्यों से भाग कर पहाड़ों की शरण में तपस्या कर लेना ही क्या सन्यासी हो जाना है? भगोड़ा होकर साधु होना धर्मसंगत कैसे हो सकता है। सच्चा साधु, सच्चा सन्यासी तो वह है जो सांसारिक आपाधापियों के साथ भी अपने हृदय की निर्मलता और अपने सदविचारों की सुदृंढता बनाए रखता है। अपने घर के दरवाजे, खिड़कियां और रौशनदान बंद करके कोई कहे कि वह समाज के झंझावातों से दूर रहता है, वह संसार के पचड़ों से वास्ता नहीं रखता और इसलिए वह एक सभ्य नागरिक होने के साथ स्वच्छ छवि का एकाधिकारी भी है, तो यह उसके मन का भ्रम है। फिर भले ही वह स्वयं को सन्यासी प्रचारित क्यों न करे। सांसारिक भीड़ के मध्य रहकर अपनी काम-वासना, मोह-माया, मन-मस्तिष्क की विसंगतियों एवं चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण रखना ही व्यक्ति विशेष को साधु अथवा सन्यासी बनाता है। उसके लिए अपने उत्तरदायित्वों से भागना अनुचित है। धर्म के अतिरिक्त देश, समाज और परिवार के प्रति भी व्यक्ति का दायित्व होता है।
अक्सर कहा जाता है कि पुण्य कर्म करने वालों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पाप कर्म करने वालों के नरक की। यह कहकर सत्य के मार्ग पर चलने का भ्रम पालने वाले दरअसल असत्य के गर्भ में होते हैं। स्वर्ग-नरक तो मात्र भ्रामक गंतव्य हैं। सब कुछ इसी धरती पर है, स्वर्ग भी, नरक भी। यह स्वर्ग-नरक व्यक्ति के कर्म फलों में परिलक्षित भी होते हैं। ऐसे ही जीवन और मरण में भेद बताने वाले अज्ञानी हैं। जीवन-मरण में कोई भेद नहीं है, दोनों अभेद हैं। जीवन और मरण में तो स्वयं भगवान भी भेद नहीं कर पाए तो फिर यह किसी साधु अथवा सन्यासी के लिए कैसे संभव है?
एक बड़ा सवाल यह भी है कि साधु-सन्यासी को पहचाने कैसे? बद्रीनाथ धाम में मैंने अजब दृश्य देखा। दो साधु एक कुत्ते को डंड़े और तालों से मार रहे थे। कारण पूछा तो पता चला वह कुत्ता उनकी रोटी लेकर भागा था। नित्य धार्मिक अनुष्ठान करने वाले, प्रभु की जय-जयकार करने वाले और जीवन में आए सुख-दुख को, 'होय वही जो राम रच राखा' कहकर संबल देने वाले साधु अगले ही पल अपनी रोटी छिन जाने से व्यथित हो उठे थे। इतने, कि हिंसक हो गए। स्वयं पर विपदा आई तो हर वस्तु और प्राणी में भगवान को देखने का प्रवचन देने वाले साधुओं को कुत्ते में भगवान नहीं दिखे। इस आचरण से एक बार फिर यह सिद्ध हुआ कि कोई व्यक्ति सर्वप्रथम मन से अर्थात हृदय से साधु-सन्यासी होता है, उसके बाद कर्म से साधु-सन्यासी होता है और, सबसे अंत में वचन से साधु-सन्यासी होता है, किन्तु केवल वेशभूषा से वह कदापि साधु-सन्यासी नहीं हो सकता।

(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)

Sunday, April 8, 2007

तो क्या सत्संग 'स्टेटस सिंबल' है...?


सच्चा सत्संग अपने अंदर ही होता है
-अनुराग मुस्कान

किसी से पूछा कि सत्संग क्या है, तो उत्तर मिला कि प्रत्येक सोमवार को इकत्तीस नंबर कोठी वाले शर्माजी के घर जो उनके गांव से पधारे बाबाजी करते हैं वह सत्संग है। किसी ने कहा हर इतवार को मंदिर में जो प्रवचन होता है, वही सत्संग है। कोई बोला कि तमाम धार्मिक चैनलों पर जो दिखाया जाता है, वह सत्संग है। दरअसल सत्संग की परिभाषा को लेकर लोगों में भ्रम हो गया है। लोगों के लिए सत्संग का अर्थ किसी पंडाल में विराजे और टीवी पर दिख रहे बाबाजी के बोल-वचन से ज्यादा कुछ नहीं है। संत समागम को ही लोग सत्संग समझने लगे हैं। सत्य का संग सत्संग कहलाता है। माना गया है कि सच्चा संत सत्य के मार्ग पर चलकर ईश्वर के सर्वाधिक समीप होता है, इसलिए उसकी वाणी ईश्वर की वाणी होती है। तात्पर्य यह कि संतों की वाणी के श्रवण को सत्संग कहना गलत नहीं है, किन्तु केवल संतों की वाणी का श्रवण भी सत्संग नहीं है।
सत्संग की परिभाषा विस्तृत है। वृहद है। असीम है। सत्य के संग से विमुख होकर सत्संग की कल्पना भी आडंबर है। ढोंग है। इंसान के जीवन में प्रत्येक पड़ाव पर उसके भीतर के सत्य की परीक्षा होती है। इस परीक्षा के प्रारूप विभिन्न होते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले पाप और पुण्य का भेद भली-भांति जानते हैं। किसी को चोट न पहुंचाना, किसी का दिल न दुखाना, किसी से अपशब्द न कहना, किसी के साथ छल न करना, किसी की आह न लेना, किसी की भावनाएं आहत न करना. किसी का उपहास न करना, किसी का शोषण न करना सत्य की परीक्षा के प्रश्नपत्र हैं। जिन्हे सभी को हल करना होता है। इन प्रश्नपत्रों में उतीर्ण होना ही सत्संग है।
मेरे एक मित्र नियमित रूप से सत्संग सुनने जाते हैं। फिर सत्संग में सुने प्रवचनों को दफ्तर में दोहराते हैं। एक दिन उनके घर गया। वह तो नहीं मिले, उनकी श्रीमतीजी से भेंट हुई। पता चला किसी बड़े सत्संग आयोजन में श्रमदान देने गए हुए हैं। श्रीमतीजी परेशान थीं। पतिदेव दिन भर प्रवचन देने वाले गुरू की महिमा का बखान करते रहते हैं। सत्संग के फेर में गृहस्थी से कोई लोना-देना ही नहीं रहा। कहते हैं हम सत्संग करने वाले तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं। मरणोपरांत हम चौथे लोक में जाएंगे। स्वर्ग-नरक, यह सब अधर्मियों के गंतव्य हैं। श्रीमतीजी के प्रश्न भी स्वाभाविक हैं, कि पतिदेव तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं, अब राशन की कतार में कौन लगे, बिजली-पानी का बिल कौन जमा कराए। सत्संग सुनने वाले पति के पास घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों की समस्याएं सुनने का समय नहीं रहा। आत्मा और परमात्मा एवं भक्त और भगवान के मध्य स्थापित आस्था के झीने आवरणों ने आंखों पर पट्टी बांध दी है। सत्संगी हो जाने वैराग ने दफ्तर और घर दोंनो के प्रति कर्तव्यभाव से विमुख कर दिया है। यह कदापि सत्संग नहीं हो सकता। ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला रहती है, नित सत्संग करती है। मगर घर में उत्पात मचाते चूहों के लिए उनके पास एक ही इलाज है- चूहेमार दवा। लगभग रोज एक चूहा मार कर सामने सड़क पर फेंकती हैं। हां, गणेशजी की कोई मूर्ति बिना मूशक और मोदक के नहीं खरीदतीं। मैंने कई महिलाओं को सज-संवर कर सत्संग में जाते देखा है, जो सत्संग सुनने के बजाय वहां भी भालाई-बुराई की चौपाल लगाती हैं और घर में वृद्ध एवं बीमार सास-ससुर पीड़ा से कराहते रहते हैं। जो सत्य की ऊंगली छोड़ कर अपने कर्म से पथभ्रष्ट हो गया वह धर्म का अनुसरण फिर नहीं कर सकता। वह अपनी आत्मा और परमात्मा दोंनो को छल रहा है।
अपने कर्मों और कर्तव्यों से भागकर सत्संग संभव नहीं है। अपने दायित्वों से मुंह मोड़कर सत्संग औचित्यहीन है। अपने कर्मों के प्रति पूर्णतः निष्ठा और पाबंदी ही सबसे सच्चा सत्संग है। फिर चाहे अपने दायित्वों के निर्वाह में समयाभाव के कारण प्रभु वंदना भी संभव न हो सके। माता-पिता के साथ अभद्रता करके मंदिर में जाना व्यर्थ है। कड़वे वचन बोलकर शंख बजाना व्यर्थ है। व्यक्ति का प्रथम सत्संग स्वयं से ही होता है। ईश्वर मंदिरों से पहले व्यक्ति के शरीर में विराजते हैं। अदृश्य रूप से। सूक्ष्म रूप से। उन्हे पहचानने के लिए अपनी चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण की इच्छाशक्ति के अलावा मानवता में असीम आस्था चाहिए। जो अपनी विसंगतियों से शास्त्रार्थ करके उन पर विजय पा लेता है। उसे बाहर जाकर सत्संग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह अपने अंदर के सत्संग से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाता है। हां, जिसके लिए सत्संग करना और सुनना मात्र दिखावे के लिए है अर्थात 'स्टेट्स सिंबल' है, उसके लिए उपरोक्त बातें निर्रथक हैं। वह इन्हें पढ़कर अब तक अपना मूल्यवान समय नष्ट कर रहा था।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)