सच्चा सत्संग अपने अंदर ही होता है
-अनुराग मुस्कान
किसी से पूछा कि सत्संग क्या है, तो उत्तर मिला कि प्रत्येक सोमवार को इकत्तीस नंबर कोठी वाले शर्माजी के घर जो उनके गांव से पधारे बाबाजी करते हैं वह सत्संग है। किसी ने कहा हर इतवार को मंदिर में जो प्रवचन होता है, वही सत्संग है। कोई बोला कि तमाम धार्मिक चैनलों पर जो दिखाया जाता है, वह सत्संग है। दरअसल सत्संग की परिभाषा को लेकर लोगों में भ्रम हो गया है। लोगों के लिए सत्संग का अर्थ किसी पंडाल में विराजे और टीवी पर दिख रहे बाबाजी के बोल-वचन से ज्यादा कुछ नहीं है। संत समागम को ही लोग सत्संग समझने लगे हैं। सत्य का संग सत्संग कहलाता है। माना गया है कि सच्चा संत सत्य के मार्ग पर चलकर ईश्वर के सर्वाधिक समीप होता है, इसलिए उसकी वाणी ईश्वर की वाणी होती है। तात्पर्य यह कि संतों की वाणी के श्रवण को सत्संग कहना गलत नहीं है, किन्तु केवल संतों की वाणी का श्रवण भी सत्संग नहीं है।
सत्संग की परिभाषा विस्तृत है। वृहद है। असीम है। सत्य के संग से विमुख होकर सत्संग की कल्पना भी आडंबर है। ढोंग है। इंसान के जीवन में प्रत्येक पड़ाव पर उसके भीतर के सत्य की परीक्षा होती है। इस परीक्षा के प्रारूप विभिन्न होते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले पाप और पुण्य का भेद भली-भांति जानते हैं। किसी को चोट न पहुंचाना, किसी का दिल न दुखाना, किसी से अपशब्द न कहना, किसी के साथ छल न करना, किसी की आह न लेना, किसी की भावनाएं आहत न करना. किसी का उपहास न करना, किसी का शोषण न करना सत्य की परीक्षा के प्रश्नपत्र हैं। जिन्हे सभी को हल करना होता है। इन प्रश्नपत्रों में उतीर्ण होना ही सत्संग है।
मेरे एक मित्र नियमित रूप से सत्संग सुनने जाते हैं। फिर सत्संग में सुने प्रवचनों को दफ्तर में दोहराते हैं। एक दिन उनके घर गया। वह तो नहीं मिले, उनकी श्रीमतीजी से भेंट हुई। पता चला किसी बड़े सत्संग आयोजन में श्रमदान देने गए हुए हैं। श्रीमतीजी परेशान थीं। पतिदेव दिन भर प्रवचन देने वाले गुरू की महिमा का बखान करते रहते हैं। सत्संग के फेर में गृहस्थी से कोई लोना-देना ही नहीं रहा। कहते हैं हम सत्संग करने वाले तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं। मरणोपरांत हम चौथे लोक में जाएंगे। स्वर्ग-नरक, यह सब अधर्मियों के गंतव्य हैं। श्रीमतीजी के प्रश्न भी स्वाभाविक हैं, कि पतिदेव तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं, अब राशन की कतार में कौन लगे, बिजली-पानी का बिल कौन जमा कराए। सत्संग सुनने वाले पति के पास घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों की समस्याएं सुनने का समय नहीं रहा। आत्मा और परमात्मा एवं भक्त और भगवान के मध्य स्थापित आस्था के झीने आवरणों ने आंखों पर पट्टी बांध दी है। सत्संगी हो जाने वैराग ने दफ्तर और घर दोंनो के प्रति कर्तव्यभाव से विमुख कर दिया है। यह कदापि सत्संग नहीं हो सकता। ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला रहती है, नित सत्संग करती है। मगर घर में उत्पात मचाते चूहों के लिए उनके पास एक ही इलाज है- चूहेमार दवा। लगभग रोज एक चूहा मार कर सामने सड़क पर फेंकती हैं। हां, गणेशजी की कोई मूर्ति बिना मूशक और मोदक के नहीं खरीदतीं। मैंने कई महिलाओं को सज-संवर कर सत्संग में जाते देखा है, जो सत्संग सुनने के बजाय वहां भी भालाई-बुराई की चौपाल लगाती हैं और घर में वृद्ध एवं बीमार सास-ससुर पीड़ा से कराहते रहते हैं। जो सत्य की ऊंगली छोड़ कर अपने कर्म से पथभ्रष्ट हो गया वह धर्म का अनुसरण फिर नहीं कर सकता। वह अपनी आत्मा और परमात्मा दोंनो को छल रहा है।
अपने कर्मों और कर्तव्यों से भागकर सत्संग संभव नहीं है। अपने दायित्वों से मुंह मोड़कर सत्संग औचित्यहीन है। अपने कर्मों के प्रति पूर्णतः निष्ठा और पाबंदी ही सबसे सच्चा सत्संग है। फिर चाहे अपने दायित्वों के निर्वाह में समयाभाव के कारण प्रभु वंदना भी संभव न हो सके। माता-पिता के साथ अभद्रता करके मंदिर में जाना व्यर्थ है। कड़वे वचन बोलकर शंख बजाना व्यर्थ है। व्यक्ति का प्रथम सत्संग स्वयं से ही होता है। ईश्वर मंदिरों से पहले व्यक्ति के शरीर में विराजते हैं। अदृश्य रूप से। सूक्ष्म रूप से। उन्हे पहचानने के लिए अपनी चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण की इच्छाशक्ति के अलावा मानवता में असीम आस्था चाहिए। जो अपनी विसंगतियों से शास्त्रार्थ करके उन पर विजय पा लेता है। उसे बाहर जाकर सत्संग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह अपने अंदर के सत्संग से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाता है। हां, जिसके लिए सत्संग करना और सुनना मात्र दिखावे के लिए है अर्थात 'स्टेट्स सिंबल' है, उसके लिए उपरोक्त बातें निर्रथक हैं। वह इन्हें पढ़कर अब तक अपना मूल्यवान समय नष्ट कर रहा था।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
-अनुराग मुस्कान
किसी से पूछा कि सत्संग क्या है, तो उत्तर मिला कि प्रत्येक सोमवार को इकत्तीस नंबर कोठी वाले शर्माजी के घर जो उनके गांव से पधारे बाबाजी करते हैं वह सत्संग है। किसी ने कहा हर इतवार को मंदिर में जो प्रवचन होता है, वही सत्संग है। कोई बोला कि तमाम धार्मिक चैनलों पर जो दिखाया जाता है, वह सत्संग है। दरअसल सत्संग की परिभाषा को लेकर लोगों में भ्रम हो गया है। लोगों के लिए सत्संग का अर्थ किसी पंडाल में विराजे और टीवी पर दिख रहे बाबाजी के बोल-वचन से ज्यादा कुछ नहीं है। संत समागम को ही लोग सत्संग समझने लगे हैं। सत्य का संग सत्संग कहलाता है। माना गया है कि सच्चा संत सत्य के मार्ग पर चलकर ईश्वर के सर्वाधिक समीप होता है, इसलिए उसकी वाणी ईश्वर की वाणी होती है। तात्पर्य यह कि संतों की वाणी के श्रवण को सत्संग कहना गलत नहीं है, किन्तु केवल संतों की वाणी का श्रवण भी सत्संग नहीं है।
सत्संग की परिभाषा विस्तृत है। वृहद है। असीम है। सत्य के संग से विमुख होकर सत्संग की कल्पना भी आडंबर है। ढोंग है। इंसान के जीवन में प्रत्येक पड़ाव पर उसके भीतर के सत्य की परीक्षा होती है। इस परीक्षा के प्रारूप विभिन्न होते हैं। सत्य का अनुसरण करने वाले पाप और पुण्य का भेद भली-भांति जानते हैं। किसी को चोट न पहुंचाना, किसी का दिल न दुखाना, किसी से अपशब्द न कहना, किसी के साथ छल न करना, किसी की आह न लेना, किसी की भावनाएं आहत न करना. किसी का उपहास न करना, किसी का शोषण न करना सत्य की परीक्षा के प्रश्नपत्र हैं। जिन्हे सभी को हल करना होता है। इन प्रश्नपत्रों में उतीर्ण होना ही सत्संग है।
मेरे एक मित्र नियमित रूप से सत्संग सुनने जाते हैं। फिर सत्संग में सुने प्रवचनों को दफ्तर में दोहराते हैं। एक दिन उनके घर गया। वह तो नहीं मिले, उनकी श्रीमतीजी से भेंट हुई। पता चला किसी बड़े सत्संग आयोजन में श्रमदान देने गए हुए हैं। श्रीमतीजी परेशान थीं। पतिदेव दिन भर प्रवचन देने वाले गुरू की महिमा का बखान करते रहते हैं। सत्संग के फेर में गृहस्थी से कोई लोना-देना ही नहीं रहा। कहते हैं हम सत्संग करने वाले तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं। मरणोपरांत हम चौथे लोक में जाएंगे। स्वर्ग-नरक, यह सब अधर्मियों के गंतव्य हैं। श्रीमतीजी के प्रश्न भी स्वाभाविक हैं, कि पतिदेव तो प्रभु से साक्षात्कार करने वालों की कतार में लगे हैं, अब राशन की कतार में कौन लगे, बिजली-पानी का बिल कौन जमा कराए। सत्संग सुनने वाले पति के पास घर-गृहस्थी और बाल-बच्चों की समस्याएं सुनने का समय नहीं रहा। आत्मा और परमात्मा एवं भक्त और भगवान के मध्य स्थापित आस्था के झीने आवरणों ने आंखों पर पट्टी बांध दी है। सत्संगी हो जाने वैराग ने दफ्तर और घर दोंनो के प्रति कर्तव्यभाव से विमुख कर दिया है। यह कदापि सत्संग नहीं हो सकता। ऐसे ही मेरे पड़ोस में एक अत्यंत धार्मिक प्रवृति की महिला रहती है, नित सत्संग करती है। मगर घर में उत्पात मचाते चूहों के लिए उनके पास एक ही इलाज है- चूहेमार दवा। लगभग रोज एक चूहा मार कर सामने सड़क पर फेंकती हैं। हां, गणेशजी की कोई मूर्ति बिना मूशक और मोदक के नहीं खरीदतीं। मैंने कई महिलाओं को सज-संवर कर सत्संग में जाते देखा है, जो सत्संग सुनने के बजाय वहां भी भालाई-बुराई की चौपाल लगाती हैं और घर में वृद्ध एवं बीमार सास-ससुर पीड़ा से कराहते रहते हैं। जो सत्य की ऊंगली छोड़ कर अपने कर्म से पथभ्रष्ट हो गया वह धर्म का अनुसरण फिर नहीं कर सकता। वह अपनी आत्मा और परमात्मा दोंनो को छल रहा है।
अपने कर्मों और कर्तव्यों से भागकर सत्संग संभव नहीं है। अपने दायित्वों से मुंह मोड़कर सत्संग औचित्यहीन है। अपने कर्मों के प्रति पूर्णतः निष्ठा और पाबंदी ही सबसे सच्चा सत्संग है। फिर चाहे अपने दायित्वों के निर्वाह में समयाभाव के कारण प्रभु वंदना भी संभव न हो सके। माता-पिता के साथ अभद्रता करके मंदिर में जाना व्यर्थ है। कड़वे वचन बोलकर शंख बजाना व्यर्थ है। व्यक्ति का प्रथम सत्संग स्वयं से ही होता है। ईश्वर मंदिरों से पहले व्यक्ति के शरीर में विराजते हैं। अदृश्य रूप से। सूक्ष्म रूप से। उन्हे पहचानने के लिए अपनी चंचल इंद्रियों पर नियत्रंण की इच्छाशक्ति के अलावा मानवता में असीम आस्था चाहिए। जो अपनी विसंगतियों से शास्त्रार्थ करके उन पर विजय पा लेता है। उसे बाहर जाकर सत्संग करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह अपने अंदर के सत्संग से प्रेरणा लेकर अपना जीवन सफल बनाता है। हां, जिसके लिए सत्संग करना और सुनना मात्र दिखावे के लिए है अर्थात 'स्टेट्स सिंबल' है, उसके लिए उपरोक्त बातें निर्रथक हैं। वह इन्हें पढ़कर अब तक अपना मूल्यवान समय नष्ट कर रहा था।
(नवभारत टाइम्स में प्रकाशित)
3 comments:
हिंदी चिठ्ठा जगत में आपका स्वागत
आपका लेख दिल को छू गया. वाक़ई सत्संग तो मन के भीतर ही होता है...सच! आप बहुत अच्छा लिखते हैं...मुबारकबाद कुबूल करें...
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